Tuesday, February 15, 2011

मेहरबान

वक़्त अगर आदमी पर मेहरबान होने लगे
आदमी खुली आँखों से भी सोने लगे
कभी जगना चाहे न बह स्वप्न से
हर वक़्त बह सिर्फ स्वप्न में रहने लगे

जगना चाहे तब भी ना खुलेंगी आंखे
स्वप्न रंगीन निगाहें जो पिरोने लगे
तभी तो वक़्त दिखलाता रहा है खेल कई
कल था आज है शायद अभी न रहे


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